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Chhatrapati Shivaji: पुण्यतिथि विशेष में छत्रपति शिवाजी की कहानी, जानिए क्यों कहलाए हिंदवी साम्राज्य के जनक

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जो अगणित लघु दीप हमारे, तूफ़ानों में एक किनारे।
जल-जलकर बुझ गए किसी दिन-माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल!
कलम, आज उनकी जय बोल! पीकर जिनकी लाल शिखाएँ।
उगल रही लपट दिशाएँ, जिनके सिंहनाद से सहमी-धरती रही अभी तक डोल! कलम, आज उनकी जय बोल!

Chhatrapati Shivaji:

इन पंक्तियों से आप समझ ही गए होंगे कि आज के इस रिपोर्ट में हम किसी महान योद्धा से आपको परिचित कराने जा रहे हैं, तो हां आप बिल्कुल ठीक समझ रहे हैं। आज हम पुण्यतिथि विशेष की कड़ी में आपको रूबरू कराने जा रहे हैं भारत के महान शासक वीर छत्रपति शिवाजी के आदर्श जीवन परिचय से।

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राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की ये पंक्तियां भारत और महाराष्ट्र में हिंदवी साम्राज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी राज भोसले पर सटीक बैठती हैं। जो विजापुर के आदिलशाह, अहमदनगर के निजाम और यहां तक ​​कि उस समय के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य मुगल शासन से टकरा गया। छत्रपति शिवाजी ने महाराष्ट्र में पहाड़ी क्षेत्रों के उपयुक्त गुरिल्ला युद्ध प्रणाली का उपयोग कर मराठा साम्राज्य का बीज बोया था। आइए आज शिवाजी के जीवन से जुड़े कुछ ऐसे ही रोचक तथ्यों को जानते हैं।

शिवाजी का जन्म

Chhatrapati Shivaji: भारत के वीर सपूतों में से एक श्रीमंत छत्रपति शिवाजी महाराज के बारे में सभी लोग जानते हैं। बहुत से लोग इन्हें हिन्दू हृदय सम्राट कहते हैं तो कुछ लोग इन्हें मराठा गौरव कहते हैं, जबकि वे भारतीय गणराज्य के महानायक थे। छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्म सन्‌ 19 फरवरी 1630 में मराठा परिवार में हुआ। कुछ लोग 1627 में उनका जन्म बताते हैं। उनका पूरा नाम शिवाजी भोंसले था।

धार्मिक संस्कारों का निर्माण

Chhatrapati Shivaji: उनका बचपन उनकी माता जिजाऊ के मार्गदर्शन में बीता। माता जीजाबाई धार्मिक स्वभाव वाली होते हुए भी गुण-स्वभाव और व्यवहार में वीरंगना नारी थीं। इसी कारण उन्होंने बालक शिवा का पालन-पोषण रामायण, महाभारत तथा अन्य भारतीय वीरात्माओं की उज्ज्वल कहानियां सुना और शिक्षा देकर किया था। दादा कोणदेव के संरक्षण में उन्हें सभी तरह की सामयिक युद्ध आदि विधाओं में भी निपुण बनाया था। धर्म, संस्कृति और राजनीति की भी उचित शिक्षा दिलवाई थी। उस युग में परम संत रामदेव के संपर्क में आने से शिवाजी पूर्णतया राष्ट्रप्रेमी, कर्त्तव्यपरायण एवं कर्मठ योद्धा बन गए।

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खेल-खेल में सीखा किला जीतना

Chhatrapati Shivaji:बचपन में शिवाजी अपनी आयु के बालक इकट्ठे कर उनके नेता बनकर युद्ध करने और किले जीतने का खेल खेला करते थे। युवावस्था में आते ही उनका खेल वास्तविक कर्म शत्रु बनकर शत्रुओं पर आक्रमण कर उनके किले आदि भी जीतने लगे। जैसे ही शिवाजी ने पुरंदर और तोरण जैसे किलों पर अपना अधिकार जमाया, वैसे ही उनके नाम और कर्म की सारे दक्षिण में धूम मच गई, यह खबर आग की तरह आगरा और दिल्ली तक जा पहुंची। अत्याचारी किस्म के तुर्क, यवन और उनके सहायक सभी शासक उनका नाम सुनकर ही मारे डर के चिंतित होने लगे थे।

पत्नी और पुत्र

Chhatrapati Shivaji: छत्रपति शिवाजी महाराज का विवाह सन् 14 मई 1640 में सइबाई निम्बालकर के साथ लाल महल, पुना में हुआ था। उनके पुत्र का नाम सम्भाजी था। सम्भाजी (14 मई, 1657– मृत्यु: 11 मार्च, 1689) शिवाजी के ज्येष्ठ पुत्र और उत्तराधिकारी थे, जिसने 1680 से 1689 ई। तक राज्य किया। शम्भुजी में अपने पिता की कर्मठता और दृढ़ संकल्प का अभाव था। सम्भाजी की पत्नी का नाम येसुबाई था। उनके पुत्र और उत्तराधिकारी राजाराम थे।

शिवाजी के गुरु

Chhatrapati Shivaji: छत्रपति शिवाजी महाराज ने ‘हिन्दू पद पादशाही’ के संस्थापक शिवाजी के गुरु रामदासजी को अपना गुरु माना। छत्रपति महाराजा शिवाजी को ‘महान शिवाजी’ बनाने में समर्थ रामदासजी का बहुत बड़ा योगदान रहा। रामदासजी का नाम भारत के साधु-संतों व विद्वत समाज में सुविख्यात है। उन्होंने ‘दासबोध’ नामक एक ग्रन्थ की रचना भी की थी, जो मराठी भाषा में है। सम्पूर्ण भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक उन्होंने 1100 मठ तथा अखाड़े स्थापित कर स्वराज्य स्थापना के लिए जनता को तैयार करने का प्रयत्न किया। इन्हें अखाड़ों की स्थापना का श्रेय जाता है। ये हनुमानजी के परम भक्त थे।

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तुलजा भवानी के उपासक

Chhatrapati Shivaji: महाराष्ट्र के उस्मानाबाद जिले में स्थित है तुलजापुर। एक ऐसा स्थान जहां छत्रपति शिवाजी की कुलदेवी मां तुलजा भवानी स्थापित हैं, जो आज भी महाराष्ट्र व अन्य राज्यों के कई निवासियों की कुलदेवी के रूप में प्रचलित हैं। वीर श्रीमंत छत्रपति शिवाजी महाराज की कुलदेवी मां तुलजा भवानी हैं। शिवाजी महान उन्हीं की उपासना करते रहते थे। मान्यता है कि शिवाजी को खुद देवी मां ने प्रकट होकर तलवार प्रदान की थी। अभी यह तलवार लंदन के संग्रहालय में रखी हुई है।

गुरिल्ला युद्ध के जनक

कहते हैं कि छत्रपति शिवाजी ने ही भारत में पहली बार गुरिल्ला युद्ध का आरम्भ किया था। उनकी इस युद्ध नीती से प्रेरित होकर ही वियतनामियों ने अमेरिका से जंगल जीत ली थी। इस युद्ध का उल्लेख उस काल में रचित ‘शिव सूत्र’ में मिलता है। गोरिल्ला युद्ध एक प्रकार का छापामार युद्ध। मोटे तौर पर छापामार युद्ध अर्धसैनिकों की टुकड़ियों अथवा अनियमित सैनिकों द्वारा शत्रुसेना के पीछे या पार्श्व में आक्रमण करके लड़े जाते हैं।

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शिवाजी की आगरा यात्रा

Chhatrapati Shivaji: अपनी सुरक्षा का पूर्ण आश्वासन प्राप्त कर छत्रपति शिवाजी आगरा के दरबार में औरंगजेब से मिलने के लिए तैयार हो गए। वह 9 मई, 1666 ई को अपने पुत्र शम्भाजी एवं 4000 मराठा सैनिकों के साथ मुगल दरबार में उपस्थित हुए, परन्तु औरंगजेब द्वारा उचित सम्मान न प्राप्त करने पर शिवाजी ने भरे हुए दरबार में औरंगजेब को ‘विश्वासघाती’ कहा, जिसके परिणमस्वरूप औरंगजेब ने शिवाजी एवं उनके पुत्र को ‘जयपुर भवन’ में कैद कर दिया। वहां से शिवाजी 13 अगस्त, 1666 ई को फलों की टोकरी में छिपकर फरार हो गए और 22 सितम्बर, 1666 ई। को रायगढ़ पहुंचे।

शिवाजी के दुर्ग (किले)

Chhatrapati Shivaji: मराठा सैन्य व्यवस्था के विशिष्ट लक्षण थे क़िले। विवरणकारों के अनुसार शिवाजी के पास 250 किले थे। जिनकी मरम्मत पर वे बड़ी रकम खर्च करते थे। शिवाजी ने कई दुर्गों पर अधिकार किया जिनमें से एक था सिंहगढ़ दुर्ग, जिसे जीतने के लिए उन्होंने तानाजी को भेजा था। इस दुर्ग को जीतने के दौरान तानाजी ने वीरगति पाई थी।- गढ़ आला पण सिंह गेला (गढ़ तो हमने जीत लिया पर सिंह हमें छोड़ कर चला गया)। बीजापुर के सुल्तान की राज्य सीमाओं के अंतर्गत रायगढ़ (1646) में चाकन, सिंहगढ़ और पुरन्दर सरीखे दुर्ग भी शीघ्र उनके अधिकारों में आ गए।

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शिवाजी की सेना

Chhatrapati Shivaji: शिवाजी ने अपनी एक स्थायी सेना बनाई थी। शिवाजी की मृत्यु के समय उनकी सेना में 30-40 हजार नियमित और स्थायी रूप से नियुक्त घुड़सवार, एक लाख पदाति और 1260 हाथी थे। उनके तोपखानों के संबंध में ठीक-ठीक जानकारी उपलब्ध नहीं है।

घुड़सवार सेना दो श्रेणियों में विभाजित थी- बारगीर व घुड़सवार सैनिक थे जिन्हें राज्य की ओर से घोड़े और शस्त्र दिए जाते थे सिल्हदार जिन्हें व्यवस्था आप करनी पड़ती थी। घुड़सवार सेना की सबसे छोटी इकाई में 25 जवान होते थे, जिनके ऊपर एक हवलदार होता था।

पांच हवलदारों का एक जुमला होता था। जिसके ऊपर एक जुमलादार होता था। दस जुमलादारों की एक हजारी होती थी और पांच हजारियों के ऊपर एक पंजहजारी होता था। वह सरनोबत के अंतर्गत आता था। प्रत्येक 25 टुकड़ियों के लिए राज्य की ओर से एक नाविक और भिश्ती दिया जाता था।

राज्य की सीमा

Chhatrapati Shivaji: शिवाजी की पूर्वी सीमा उत्तर में बागलना को छूती थी और फिर दक्षिण की ओर नासिक एवं पूना जिलों के बीच से होती हुई एक अनिश्चित सीमा रेखा के साथ समस्त सतारा और कोल्हापुर के जिले के अधिकांश भाग को अपने में समेट लेती थी। पश्चिमी कर्नाटक के क्षेत्र बाद में सम्मिलित हुए। स्वराज का यह क्षेत्र तीन मुख्य भागों में विभाजित था:-

  • पूना से लेकर सल्हर तक का क्षेत्र कोंकण का क्षेत्र, जिसमें उत्तरी कोंकण भी सम्मिलित था, पेशवा मोरोपंत पिंगले के नियंत्रण में था।
  • उत्तरी कनारा तक दक्षिणी कोंकण का क्षेत्र अन्नाजी दत्तों के अधीन था।
  • दक्षिणी देश के जिले, जिनमें सतारा से लेकर धारवाड़ और कोफाल का क्षेत्र था, दक्षिणी पूर्वी क्षेत्र के अंतर्गत आते थे और दत्ताजी पंत के नियंत्रण में थे। इन तीन सूबों को पुनः परगनों और तालुकों में विभाजित किया गया था। परगनों के अंतर्गत तरफ और मौजे आते थे।
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शिवाजी के दुर्ग (किले)

Chhatrapati Shivaji: मराठा सैन्य व्यवस्था के विशिष्ट लक्षण थे क़िले। विवरणकारों के अनुसार शिवाजी के पास 250 किले थे। जिनकी मरम्मत पर वे बड़ी रकम खर्च करते थे। शिवाजी ने कई दुर्गों पर अधिकार किया जिनमें से एक था सिंहगढ़ दुर्ग, जिसे जीतने के लिए उन्होंने तानाजी को भेजा था। इस दुर्ग को जीतने के दौरान तानाजी ने वीरगति पाई थी।- गढ़ आला पण सिंह गेला (गढ़ तो हमने जीत लिया पर सिंह हमें छोड़ कर चला गया)। बीजापुर के सुल्तान की राज्य सीमाओं के अंतर्गत रायगढ़ (1646) में चाकन, सिंहगढ़ और पुरन्दर सरीखे दुर्ग भी शीघ्र उनके अधिकारों में आ गए।

मुगलों से टक्कर

Chhatrapati Shivaji: शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति से चिंतित हो कर मुगल बादशाह औरंगजेब ने दक्षिण में नियुक्त अपने सूबेदार को उन पर चढ़ाई करने का आदेश दिया। लेकिन सुबेदार को मुंह की खानी पड़ी। शिवाजी से लड़ाई के दौरान उसने अपना पुत्र खो दिया और खुद उसकी अंगुलियां कट गई। उसे मैदान छोड़कर भागना पड़ा। इस घटना के बाद औरंगजेब ने अपने सबसे प्रभावशाली सेनापति मिर्जा राजा जयसिंह के नेतृत्व में लगभग 1,00,000 सैनिकों की फौज भेजी।

शिवाजी को कुचलने के लिए राजा जयसिंह ने बीजापुर के सुल्तान से संधि कर पुरन्दर के क़िले को अधिकार में करने की अपने योजना के प्रथम चरण में 24 अप्रैल, 1665 ई। को ‘व्रजगढ़’ के किले पर अधिकार कर लिया। पुरन्दर के किले की रक्षा करते हुए शिवाजी का अत्यन्त वीर सेनानायक ‘मुरार जी बाजी’ मारा गया। पुरन्दर के क़िले को बचा पाने में अपने को असमर्थ जानकर शिवाजी ने महाराजा जयसिंह से संधि की पेशकश की। दोनों नेता संधि की शर्तों पर सहमत हो गए और 22 जून, 1665 ई। को ‘पुरन्दर की सन्धि’ सम्पन्न हुई।

जब शिवाजी को धोखे से मारना चाहा…

शिवाजी के बढ़ते प्रताप से आतंकित बीजापुर के शासक आदिलशाह जब शिवाजी को बंदी न बना सके तो उन्होंने शिवाजी के पिता शाहजी को गिरफ्तार किया। पता चलने पर शिवाजी आगबबूला हो गए। उन्होंने नीति और साहस का सहारा लेकर छापामारी कर जल्द ही अपने पिता को इस कैद से आजाद कराया।

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तब बीजापुर के शासक ने शिवाजी को जीवित अथवा मुर्दा पकड़ लाने का आदेश देकर अपने मक्कार सेनापति अफजल खां को भेजा। उसने भाईचारे व सुलह का झूठा नाटक रचकर शिवाजी को अपनी बांहों के घेरे में लेकर मारना चाहा, पर समझदार शिवाजी के हाथ में छिपे बघनखे का शिकार होकर वह स्वयं मारा गया। इससे उसकी सेनाएं अपने सेनापति को मरा पाकर वहां से दुम दबाकर भाग गईं।

जब विरोधियों से जा मिला बेटा…

शिवाजी की कई पत्नियां और दो बेटे थे, उनके जीवन के अंतिम वर्ष उनके ज्येष्ठ पुत्र संभाजी की धर्मविमुखता के कारण परेशानियों में बीते। उनका यह पुत्र एक बार मुगलों से भी जा मिला था और उसे बड़ी मुश्किल से वापस लाया गया था। घरेलु झगड़ों और अपने मंत्रियों के आपसी वैमनस्य के बीच साम्राज्य की शत्रुओं से रक्षा की चिंता ने शीघ्र ही शिवाजी को मृत्यु के कगार पर पहुंचा दिया। शिवाजी की 1680 में कुछ समय बीमार रहने के बाद अपनी राजधानी पहाड़ी दुर्ग राजगढ़ में 3 अप्रैल को मृत्यु हो गई।

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मुस्लिम विरोधी नहीं थे शिवाजी

शिवाजी पर मुस्लिम विरोधी होने का दोषारोपण किया जाता रहा है, पर यह सत्य इसलिए नहीं कि उनकी सेना में तो अनेक मुस्लिम नायक एवं सेनानी थे ही, अनेक मुस्लिम सरदार और सूबेदारों जैसे लोग भी थे। वास्तव में शिवाजी का सारा संघर्ष उस कट्टरता और उद्दंडता के विरुद्ध था, जिसे औरंगजेब जैसे शासकों और उसकी छत्रछाया में पलने वाले लोगों ने अपना रखा था।

1674 की ग्रीष्म ऋतु में शिवाजी ने धूमधाम से सिंहासन पर बैठकर स्वतंत्र प्रभुसत्ता की नींव रखी। दबी-कुचली हिन्दू जनता को उन्होंने भयमुक्त किया। हालांकि ईसाई और मुस्लिम शासक बल प्रयोग के जरिए बहुसंख्य जनता पर अपना मत थोपते, अतिरिक्त कर लेते थे, जबकि शिवाजी के शासन में इन दोनों संप्रदायों के आराधना स्थलों की रक्षा ही नहीं की गई बल्कि धर्मान्तरित हो चुके मुसलमानों और ईसाईयों के लिए भयमुक्त माहौल भी तैयार किया। शिवाजी ने अपने आठ मंत्रियों की परिषद के जरिए उन्होंने छह वर्ष तक शासन किया। उनकी प्रशासनिक सेवा में कई मुसलमान भी शामिल थे।

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शिवाजी की मृत्यु

अपने जीवन के आखिरी दिनों में वह अपने राज्य को लेकर काफी चिंतित रहने लगे थे, जिसकी वजह से उनका स्वास्थ्य बिगड़ता चला गया और लगातार 3 सप्ताह तक तेज बुखार में रहे, जिसके बाद 3 अप्रैल, 1680 को उनका निधन हो गया।

  • इतिहासकारों का एक वर्ग मानता रहा है शिवाजी की मृत्यु स्वाभाविक थी। दरअसल निधन से तीन साल पहले से वो बीमार थे। मरने के तीन दिन पहले उनकी हालत ज्यादा बिगड़ गई थी।
  • शिवाजी की स्वाभाविक मृत्यु की बात करने वाले इतिहासकारों के अनुसार शायद उन्हें टाइफाइड हो गया था, इस कारण वो आखिरी के तीन दिनों में तेज बुखार से पीड़ित थे। उन्हें खून की उल्टी भी हुई।

शिवाजी से जुड़े कुछ रोचक तथ्य

  • अपने बचपन और युवावस्था के दौरान, उन्होंने अपनी शारीरिक शक्ति को विकसित करने के लिए बहुत मेहनत की।
  • विभिन्न हथियारों का अध्ययन किया जो यह देखने के लिए सबसे प्रभावी थे।
  • सरल और ईमानदार मावलों को इकट्ठा किया और उनमें विश्वास और आदर्शवाद को स्थापित किया।
  • शपथ लेने के बाद, उन्होंने खुद को हिंदवी स्वराज्य की स्थापना के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध किया। प्रमुख किलों पर विजय प्राप्त की और नए निर्माण किए।
  • उसने चालाकी से कई दुश्मनों को सही समय पर लड़ने के फार्मूले का इस्तेमाल किया और जरूरत पड़ने पर एक संधि पर हस्ताक्षर किए। स्वराज्य के भीतर, उन्होंने सफलतापूर्वक राजद्रोह, धोखे और दुश्मनी का मुकाबला किया।
  • गुरिल्ला रणनीति के एक बेतहाशा उपयोग के साथ हमला किया।
  • आम नागरिकों, किसानों, बहादुर सैनिकों, धार्मिक स्थलों, और अन्य वस्तुओं के लिए उचित प्रावधान किए गए थे।
  • सबसे महत्वपूर्ण बात, उन्होंने हिंदवी स्वराज्य के समग्र शासन की देखरेख के लिए एक अष्टप्रधान मंडल (आठ मंत्रियों का मंत्रिमंडल) बनाया।
  • उन्होंने राजभाषा के विकास को बहुत गंभीरता से लिया और विभिन्न प्रकार की कलाओं का संरक्षण किया।

विशेष- महाराष्ट्र को आज भी 17वीं शताब्दी की चर्चित स्वराज्य में स्वाभिमान और आत्मविश्वास की प्रेरणा देता है।

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