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तो फिर शायद सबसे ज्यादा मौतें होंगी दुनिया में फैले अनुपयोगी प्लास्टिक के कचरे से 

अपने सौ सालाें से ज्यादा के इतिहास में प्लास्टिक अलग अलग कारणों से चर्चा में रहा। शुरुआत में इसे एक क्रांतिकार वस्तु के रूप में देखा गया। प्लास्टिक समर्थकों ने इसे ईको फ्रेंडली उत्पाद मानकर पूरी दुनिया में लकड़ी और कागज का सबसे अच्छा विकल्प माना। इतना ही नहीं शुरुआती दौर में बैकलाइट प्लास्टिक बनते ही पूरी दुनिया के बाजारों में आ गया। 20वीं सदी के पहले 30 सालों में यह पूरी दुनिया में मशहूर हो गया।

साल 1924 में प्लास्टिक के जनक लियो बैकलैंड की तस्वीर मशहूर मैग्जीन टाइम के पहले पन्न पर छपी थी और फोटो के नीचे लिखा था न जलेगा और न पिघलेगा। इसके बाद प्लास्टिक का पूरी दुनिया में ऐसा विकास हुआ जो आज पूरी मानवता के लिए खतरा बना हुआ है। वहीं आने वाले समय में अगर जीव जंतुओं की सबसे ज्यादा मौतें होंगी तो इसी अनुपयोगी प्लास्टिक से ही होगी। 

दुनिया में बने प्लास्टिक का केवल 30 फीसदी हिस्सा ही काम का : 
वहीं भारत में प्लास्टिक 1960 में आया। तब तक प्लास्टिक के दुष्प्रभावों के बारे में किसी भी तरह का शोध नहीं हुआ था। एक रिपोर्ट की मानें तो साल 1950 से लेकर वर्तमान तक पूरी दुनिया में 8.3 अरब मीट्रिक टन प्लास्टिक का उत्पादन हुआ है। जिसमें से केवल 30 फीसदी ही इस्तेमाल हो रहा है। बाकि का 70 फीसदी प्लास्टिक आज मानव सहित सभी जीव जंतुओं के लिए मौत का सामान इकट्‌ठा कर रहा है। 

इस बेकार 70 फीसद प्लास्टिक में से केवल 9 फीसदी ही रिसाइकल हो पाता है। 12 फीसदी हिस्सा मशीनों में जलाया जा रहा है। जो प्रदूषण का प्रमुख कारण है, बाकी का 79 फीसदी हिस्सा लैंडफिल साइट में दफनाया जा चुका है या फिर हमारे सागरों, महासागरों, नदियाें, तालाबों और पहाड़ों में फैला हुआ है। जहां यह हानिकारक कैमिकल्स को हमारे जल स्रोतों में मिला रहा है। 

दुनिया में हर जगह मौजूद है प्लास्टिक : 

इंसान इस धरा पर जन्म लेकर 80 से 100 सालों बाद इसी में विलीन हो जाता है, लेकिन जो प्लास्टिक हमने पैदा किया है और जो प्लास्टिक हम लोग पैदा करेंगे। उसे इस धरती में विलीन होने में 400 से 1000 साल का समय लगने वाला है। आज यह प्लास्टिक सारी दुनिया में अपनी जड़ें जमा चुका है। महासागर की गहराइयों से लेकर, सहारा रेगिस्तान तक और हिमालय की पर्वत श्रंखलाओं से लेकर अंटार्कटिका तक प्लास्टिक फैला हुआ है।   

नतीजतन इसके दुष्प्रभाव भी किसी एक विशेष क्षेत्र में नहीं बल्कि सारी दुनिया में देखने को मिलेंगे। यही कारण है कि आविष्कार के सौ साल बाद इसके फायदे से ज्यादा इसके दुष्प्रभावों पर अब ज्यादा गहरी चर्चा होने लगी है। 

गरीब देशों को खत्म करने पर तुले अमीर देश :

दुनिया में सबसे ज्यादा प्लास्टिक का उत्पादन अमीर देश ही करते हैं और अमीर देश अपने प्लास्टिक कचरे को गरीब देशों में भेज देते हैं। कुछ आमदनी के चक्कर में गरीब देश इस प्लास्टिक कचरे को जलाते या गलाते हैं। विकास की लालच में शायद वे अपने देश की आबोहवा को खराब करके आम लोगों के औसत जीवन को ही कम कर रहे हैं। 

लेकिन हवा में घुलने वाला प्रदूषण का जहर किसी एक देश में नहीं रहता। मौसम, बादल, हवा जैसी तमाम चीजें दुनिया के तमाम देश एक दूसरे के साथ साझा करते हैं। प्लास्टिक के कण पानी और धूप के साथ प्रतिक्रिया करके टूटने लगते हैं और बेहद बारीक कणों में तब्दील हो जाते हैं। जो बाद में पानी, हवा, खाना आदि के जरिए हमारे शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। यही कारण है कि यदि प्लास्टिक की रोकथाम को लेकर कुछ बड़े क्रांतिकारी बदलाव नहीं किए गए तो आने वाली पीढ़ियों को हम सदियों सदियों तक बने रहने वाले इस कचरे में छोड़कर जाएंगे।

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