Atal Bihari Vajpayee:
अटल बिहारी वाजपेयी(Atal Bihari Vajpayee) एक ऐसे प्रधानमंत्री थे, भारत देश के 3 बार बनने वाले पहले प्रधानमंत्री रहे। वहीँ उनकी सरकार 13 दिन, 13 महीने, और अंतिम बार पुरे 5 वर्षीय काल के लिए रहे।
वो एक राजनेता होने के अलावा एक राष्ट्रपुरुष और एक कवि भी थे। जहाँ राजनीती में कोई किसी का नहीं होता बात प्रचलित हैं वही वाजपेयी जी को किसी से कोई बेर नहीं था। जिसमे ये किस्सा प्रमुखता रूप से इस बात का साबुत है।
जब वो पहली बार प्रधानमंत्री बने तो प्रधानमंत्री आवास में पंडित नेहरू का एक चलचित्र लगा हुआ था और अगले दिन किसी कार्य करता ने उसको वहां से हटा दिया। तो अगले दिन वाजपेयी जी(Atal Bihari Vajpayee) ने कार्यकर्ता से पूछा यहाँ एक नेहरू जी की तस्वीर लगी थी वो कहा है, तो कार्यकर्ता ने कहा की वो दूसरी पार्टी के नेता थे तो। उन्होंने बात काटते हुए कहा तो क्या हुआ वो हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री थे। वो तस्वीर वापस लगाई जाये।
जहा वो एक बहुत ही प्रबल नेता थे वही वो बहुत ही प्रसिद्ध अपनी कविताओं के लिए भी थे। तो चलिए पढ़ते हैं हमारे देश के प्रधानमंत्री की कविताये उनकी जयंती पर।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी(Atal Bihari Vajpayee) ने बहुत कम उम्र में कविता लिखनी शुरू कर दी थी। वाजपेयी ने अपनी जिंदगी की पहली कविता ‘ताजमहल’ पर लिखी थी। यह उन्होंने खुद अपनी कविताओं के संग्रह की भूमिका में लिखा।
अटल जी(Atal Bihari Vajpayee) ने पहली कविता ताजमहल पर लिखी जरूर पर यह ताजमहल की खूबसूरती पर नहीं थी, और न ही मुमताज के लिए शाहजहां के प्यार पर आधारित थी। बल्कि यह कविता उन श्रमिकों पर आधारित थी, जिन्होंने इस भव्य इमारत का निर्माण किया था, और कहा जाता है कि इन श्रमिकों के हाथ कटवा लिए गए थे।
अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihari Vajpayee) की कविताएं
कविता का अंश:
“ये ताजमहल, ये ताजमहल,
यमुना की रोती धार विकल,
कल-कल चल चल,
जब हिंदुस्तान रोया सकल,
तब बन पाया ताजमहल,
ये ताजमहल, ये ताजमहल।”
पहली कविता:
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ
सवेरा है मगर पूरब दिशा में
घिर रहे बादल
रूई से धुंधलके में
मील के पत्थर पड़े घायल
ठिठके पाँव
ओझल गाँव
जड़ता है न गतिमयता
स्वयं को दूसरों की दृष्टि से
मैं देख पाता हूँ
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ
समय की सदर साँसों ने
चिनारों को झुलस डाला,
मगर हिमपात को देती
चुनौती एक दुर्ममाला,
बिखरे नीड़,
विहँसे चीड़,
आँसू हैं न मुस्कानें,
हिमानी झील के तट पर
अकेला गुनगुनाता हूँ।
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ
दूसरी कविता:
कौरव कौन, कौन पांडव
कौरव कौन
कौन पांडव,
टेढ़ा सवाल है।
दोनों ओर शकुनि
का फैला
कूटजाल है।
धर्मराज ने छोड़ी नहीं
जुए की लत है।
हर पंचायत में
पांचाली
अपमानित है।
बिना कृष्ण के
आज
महाभारत होना है,
कोई राजा बने,
रंक को तो रोना है।
तीसरी कविता:
दूध में दरार पड़ गई
ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया?
भेद में अभेद खो गया।
बँट गये शहीद, गीत कट गए,
कलेजे में कटार दड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।
खेतों में बारूदी गंध,
टूट गये नानक के छंद
सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है।
वसंत से बहार झड़ गई
दूध में दरार पड़ गई।
अपनी ही छाया से बैर,
गले लगने लगे हैं ग़ैर,
ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता।
बात बनाएँ, बिगड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।
चौथी कविता:
झुक नहीं सकते
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते
सत्य का संघर्ष सत्ता से
न्याय लड़ता निरंकुशता से
अंधेरे ने दी चुनौती है
किरण अंतिम अस्त होती है
दीप निष्ठा का लिये निष्कंप
वज्र टूटे या उठे भूकंप
यह बराबर का नहीं है युद्ध
हम निहत्थे, शत्रु है सन्नद्ध
हर तरह के शस्त्र से है सज्ज
और पशुबल हो उठा निर्लज्ज
किन्तु फिर भी जूझने का प्रण
अंगद ने बढ़ाया चरण
प्राण-पण से करेंगे प्रतिकार
समर्पण की माँग अस्वीकार
दाँव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते
पांचवी कविता :
गीत नहीं गाता हूँ
बेनकाब चेहरे हैं,
दाग बड़े गहरे हैं,
टूटता तिलस्म, आज सच से भय खाता हूँ ।
गीत नही गाता हूँ ।
लगी कुछ ऐसी नज़र,
बिखरा शीशे सा शहर,
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूँ ।
गीत नहीं गाता हूँ ।
पीठ मे छुरी सा चाँद,
राहु गया रेखा फाँद,
मुक्ति के क्षणों में बार-बार बँध जाता हूँ ।
गीत नहीं गाता हूँ ।
छटी कविता:
गीत नया गाता हूँ
गीत नया गाता हूँ
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात कोयल की कुहुक रात
प्राची मे अरुणिम की रेख देख पता हूँ
गीत नया गाता हूँ
टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी
अन्तर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी
हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा,
काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूँ
गीत नया गाता हूँ
सातवीं कविता:
राह कौन सी जाऊँ मैं?
चौराहे पर लुटता चीर
प्यादे से पिट गया वजीर
चलूँ आखिरी चाल कि बाजी छोड़ विरक्ति सजाऊँ?
राह कौन सी जाऊँ मैं?
सपना जन्मा और मर गया
मधु ऋतु में ही बाग झर गया
तिनके टूटे हुये बटोरूँ या नवसृष्टि सजाऊँ मैं?
राह कौन सी जाऊँ मैं?
दो दिन मिले उधार में
घाटों के व्यापार में
क्षण-क्षण का हिसाब लूँ या निधि शेष लुटाऊँ मैं?
राह कौन सी जाऊँ मैं ?
आठवीं कविता:
आओ, मन की गांठें खोलें
यमुना तट, टीले रेतीले,
घास–फूस का घर डाँडे पर,
गोबर से लीपे आँगन मेँ,
तुलसी का बिरवा, घंटी स्वर,
माँ के मुंह मेँ रामायण के दोहे-चौपाई रस घोलें!
आओ, मन की गांठें खोलें!
बाबा की बैठक मेँ बिछी
चटाई बाहर रखे खड़ाऊं,
मिलने वालोँ के मन मेँ
असमंजस, जाऊँ या न जाऊँ?
माथे तिलक, नाक पर ऐनक, पोथी खुली, स्वयम से बोलें!
आओ, मन की गांठें खोलें!
सरस्वती की देख साधना,
लक्ष्मी ने संबंध न जोड़ा,
मिट्टी ने माथे का चंदन,
बनने का संकल्प न छोड़ा,
नये वर्ष की अगवानी मेँ, टुक रुक लें, कुछ ताजा हो लें!
आओ, मन की गांठें खोलें!
नवी कविता:
नई गाँठ लगती:
जीवन की डोर छोर छूने को मचली,
जाड़े की धूप स्वर्ण कलशों से फिसली,
अन्तर की अमराई
सोई पड़ी शहनाई,
एक दबे दर्द-सी सहसा ही जगती ।
नई गाँठ लगती ।
दूर नहीं, पास नहीं, मंजिल अजानी,
साँसों के सरगम पर चलने की ठानी,
पानी पर लकीर-सी,
खुली जंजीर-सी ।
कोई मृगतृष्णा मुझे बार-बार छलती ।
नई गाँठ लगती ।
मन में लगी जो गाँठ मुश्किल से खुलती,
दागदार जिन्दगी न घाटों पर धुलती,
जैसी की तैसी नहीं,
जैसी है वैसी सही,
कबिरा की चादरिया बड़े भाग मिलती ।
नई गाँठ लगती ।