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भोपाल की फातिमा बानो जिसके अखाड़े में तैयार होते हैं दंगल के सुल्तान 

हम लोग आज 21वीं सदी में पहुंच गए हैं, लेकिन आज भी भारत में बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाएं पर्दे के पीछे रहने को मजबूर हैं, लेकिन भोपाल की रहने वाली फातिमा बानो इन सब दकियानूसी विचारों को बहुत पीछे छोड़कर पूरे देश में अपने नाम को बुलंद कर चुकी हैं। वहीं फातिमा उन महिलाओं के लिए एक प्रेरणास्रोत भी बन चुकी हैं, जो दकियानूसी नकाब के पीछे अपने हुनर का गला घोंट चुकी हैं।

46 साल की फातिमा आज देश की एकमात्र महिला कोच हैं, जो रेसलिंग के लिए पहलवानों को तैयार करती हैं। उनकी उपलब्धियों को देखते हुए मप्र सरकार उन्हें विक्रम अवॉर्ड से भी नवाज चुकी है। हालांकि इन सब उपलब्धियों को हासिल करना उनके लिए आसान नहीं था। फातिमा के रेसलिंग कोच बनने के इसी संघर्ष को StackUmbrella ने बहुत नजदीक से जाना। 

विरोध को दरकिनार कर बनीं रेसलर : 

फातिमा बताती हैं कि अपने 24 सालों के सफर में इन उपलब्धियों को हासिल करना आसान नहीं था। समाज के साथ-साथ परिवार ने मेरे इस फैसले का न केवल कड़ा विरोध किया, बल्कि जगह-जगह पर मुझे रोकने का भरसक प्रयास किया गया। हालांकि मुझे कुछ कर गुजरने का जुनून सवार हो चुका था। इसलिए सभी तरह के विरोधों को दरकिनार कर मैं आगे बढ़ती गई। इसी कड़ी में सबसे पहले कबड्‌डी और फिर जूड़ो में बड़ी उपलब्धियां हासिल कीं।

1997 में फातिमा की मुलाकात शाकिर नूर से हुई, जिन्होंने फातिमा को रेसलिंग खेलने को कहा। उसके बाद फातिमा ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज वे देश की एकमात्र महिला रेसलिंग कोच हैं, जो युवक और युवतियों दोनों को ही दंगल में पहलवानी के गुर सिखाती हैं। फातिमा बानो अब तक प्रदेश को 20 से ज्यादा अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी दे चुकी हैं। 

कबड्‌डी से की शुरुआत रेसलिंग पर हासिल हुआ मुकाम : 
चार बहनों और एक भाई में तीसरे नंबर की फातिमा की दीवानगी हमेशा खेलों के प्रति बनी रही। शुरुआत में उन्होंने करीब ढाई साल तक कबड्‌डी भी खेली। फातिमा कबड्‌डी की नेशनल प्लेयर भी रही हैं। हालांकि इस दौरान कोई मेडल उन्हें हासिल नहीं हुआ। कबड्‌डी खेलते खेलते ही उनकी मुलाकात शाकिर नूर से हुई। जिन्होंने फातिमा को रेसलिंग के गुर सिखाए।

 रेसलिंग सीखते सीखते ही शाकिर से ऐसा रिश्ता बना की 11 साल बाद दोनों ने निकाह कर लिया। आज फातिमा की दिनचर्या सुबह 5 बजे से शुरू हो जाती है, जिसके बाद वे सुबह ठीक 6 बजे अखाड़ा टेनिंग स्कूल में कुश्ती की ट्रेनिंग देने पहुंच जाती हैं। 

शुरुआत में किय परेशानियों का सामना 
फातिमा बताती हैं कि शुरुआत में उन्हें काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। कई बार लड़के सामने ही लंगोट बदल लेते थे, जिसे देख बहुत असहज हो जाती थी। वहीं परिवार भी नहीं चाहता था कि मैं खेल के क्षेत्र में कोई मुकाम हासिल कर सकूं। इस दौरान कई बार रोकने का प्रयास हुआ। अगर उस दौरान हार मान लेती तो आज यह मुकाम हासिल नहीं कर पाती।

फातिमा की उपलब्धियों पर एक नजर डालें तो उन्होंने लगातार तीन सालों तक एक गोल्ड, एक सिल्वर और ब्रांज मैडल हासिल किया है। 2001 में फातिमा को विक्रम अवार्ड से नवाजा गया, जिसके बाद 2002 में उन्होंने खिलाड़ी के रूप में कुश्ती को अलविदा कह दिया और कोच के रूप में एक नई पारी की शुरुआत की।

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