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महाराष्ट्र की मीनाक्षी ने तीन साल पहले 50 रुपए से बनाना शुरू की थीं बांस की राखियां, आज इंग्लैंड और यूरोप में करती हैं सप्लाई 

कर्म करो तो फल मिलता है…!
आज नहीं तो कल मिलता है…!
जितना गहरा होगा कुंआ…!
उतना ही मीठा जल मिलता है…!

इन्हीं पंक्तियों की ही तरह ही है महाराष्ट्र के चंद्रपुर की मीनाक्षी मुकेश वाल्के का जीवन। “द बैंबू लेडी ऑफ महाराष्ट्र” के नाम से मशहूर मीनाक्षी ने 2018 में मात्र 50 रुपए से सामाजिक गृहोद्योग अभिसार इनोवेटिव के नाम से छोटे से गृह उद्योग की शुरुआत की थी। इसी दौरान मीनाक्षी ने 10 बाय 13 की झोपड़पट्टी में बांस से कलाकृतियां बनाना शुरू की थीं। 


आदिवासी समुदाय की इस महिला कलाकार ने सबसे पहले बांस की राखियां बनाना शुरू की थीं। यह मीनाक्षी के हौसले की ही उड़ान है कि अब उनकी बनाई कलाकृतियां सात समुंदर पार बिक्री के लिए पहुंच रही हैं। इस कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मीनाक्षी के काम की सराहना कर चुके हैं। 

यूरोप तक जा रही हैं मीनाक्षी की राखियां : 
मीनाक्षी महाराष्ट्र के आदिवासी बहुल और नक्सल प्रभावित क्षेत्र चंद्रपुर के बंगाली कैम्प में रहती है। पेशे से बैंबू डिजाइनर है और आदिवासी महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए भी कार्य कर रही हैं। मीनाक्षी के हाथों से बनी राखियां इस साल इंग्लैंड, स्विटजरलैंड, फ्रांस, नीदरलैंड, कनाडा और स्वीडन तक पहुंच चुकी हैं। वहीं इस बार स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर मीनाक्षी के हाथों बना बांस का तिरंगा इंग्लैंड में भी लहराया था। 


मीनाक्षी के संघर्ष की दास्तां को इसी से समझा जा सकता है कि दो साल पहले उन्हें इजराइल के जेरुसलम से एक बड़ी आर्ट वर्कशॉप में शिरकत करने का निमंत्रण मिला था, लेकिन आर्थिक समस्याओं के कारण वह इजराइल नहीं जा सकीं। हालांकि अब उनकी कलाकृतियां कई देशों में अपनी पहचान बना चुकी हैं।  

20 आदिवासी महिलाओं को दिया सम्मानजनक रोजगार : 
एक समय गरीबी में अपना जीवन यापन करने वाली मीनाक्षी आज करीब 20 आदिवासी महिलाओं को रोजगार दे रही हैं। खास बात यह है कि सभी ने इस बार करीब 20 हजार से अधिक राखियां और अन्य कलाकृतियां भी बिक्री के लिए तैयार की हैं। झोपड़पट्टी में रहकर आम लोगों के बर्तन और झाड़ू पोंछा करने वाली अति निम्न वर्ग की इन महिलाओं को मीनाक्षी ने सम्मानजनक रोजगार दिया है। 


साथ ही यह सभी महिलाएं पर्यावरण संरक्षण के अपने दायित्व को निभाते हुए प्लास्टिक मुक्ति का अभियान भी चला रही हैं और बांस की खेती को प्रोत्साहन दे रही हैं। जिससे पर्यावरण में ऑक्सीजन की आपूर्ति भी हो रही है। बैंबू कल्चर में दिए गए इस अद्भुत योगदान के लिए इसी साल कनाडा की इंडो कैनेडियन आर्ट्स एंड कल्चर इनिशिएटिव संस्था ने विमन्स डे के अवसर पर मीनाक्षी को विमन हीरो पुरस्कार से सम्मानित किया था।

 
हौसले के बीच आज भी जूझ रही हैं परेशानी से : 
मीनाक्षी अपनी राखियों को ईको फ्रेंडली बनाए रखने के लिए खादी के धागे के साथ, तुलसी मणि एवं रुद्राक्ष का प्रयोग करती हैं। यही कारण है कि स्विटजरलैंड निवासी सुनीता कौर, स्वीडन के सचिन जोनाालवार और लंदन की मीनाक्षी खोडके ने अपने ग्लोबल बाप्पा शोरूम के लिए बांस की राखियों के साथ बांस का तिरंगा भी मंगाया है। 

हालांकि इसी बीच मीनाक्षी आज भी कुछ बुनियादी सुविधाएं के लिए जूझ रही हैं। आज भी मीनाक्षी के पास  वर्कशॉप के लिए जगह नहीं है। कुछ जरूरी मशीनों की कमी के कारण काम को करने में कुछ कठिनाई का सामना करना पड़ता है। साथ ही कुछ फंड की कमी भी उन्हें हमेशा परेशान करती रहती है। फिलहाल मीनाक्षी आदिवासी समुदाय की कम से कम 100 महिलाओं को सशक्त करने में जुटी हुई हैं। 

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