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मेडिकल साइंस में नहीं होता ब्लैक, व्हाइट या यलो फंगस, एम्स के निदेशक की जुबानी जानिए सच्चाई 

कोरोना महामारी से लोगों की परेशानियां कम नहीं हुई थीं। इसके बाद आई म्यूकरमाइकोसिस (Mucormycosis) (ब्लैक फंगस) नामक बीमारी ने आम लोगों की परेशानियां और ज्यादा बढ़ा दी हैं। इतना ही नहीं फंगस के नाम पर ब्लैक, व्हाइट और बाद में यलो फंगस के नाम पर भी डॉक्टरों के द्वारा अलग-अलग तरह के दावे किए जा रहे थे।

इसमें रंगों के आधार पर फंगस के अधिक खतरनाक होने की बात कही जा रही थी, लेकिन एम्स भोपाल के निदेशक (Director Aiims Bhopal) और माइक्रोबायोलॉजिस्ट डॉक्टर सरमन सिंह  (Dr. Sarman Singh)  की मानें तो रंगों के आधार पर फंगस की केवल अफवाह फैलाई जा रही है। अगर ऐसा ही रहा तो कुछ समय बाद रेड और ग्रीन फंगस भी सामने आ सकती है। इस पर लगाम लगाने के लिए उन्होंने जल्दी ही हेल्थ मिनिस्ट्री को वीडियो भेजकर इस पर लगाम लगाने की बात कही है। 

म्यूकर या केनेडा नाम से होती है फंगस की पहचान : 
डॉ. सरमन सिंह ने पत्रकारों को जानकारी देते हुए बताया कि फंगस के ब्लैक या व्हाइट कोई नाम नहीं होते हैं। आम लोगों को समझाने के लिए उनके ये नाम रखे गए हैं। माइक्रोबायोलॉजी या मेडिकल साइंस में ब्लैक फंगस नाम की कोई चीज नहीं होती है। इसका साइंटिफिक नेम म्यूकर (Mucor) होता है।


वहीं जिसे आजकल व्हाइट फंगस के नाम से बताया जा रहा है। उसका साइंटिफिक नेम केनेडा (Canada) है। वहीं यलो फंगस कुछ भी नहीं होता है। उन्होंने इस पर आपत्ति दर्ज करते हुए कहा कि किसी गांव के डॉक्टर ने इसे यलो फंगस कहकर मीडिया में फैला दिया और लोगों में भय फैला दिया।

डरें नहीं अच्छी इम्युनिटी से दूर रहेगी ये बीमारी : 
इस दौरान डॉ. सरमन सिंह ने भय को खत्म करने के लिए जानकारी देते हुए बताया कि भविष्य में रेड, ग्रीन या अन्य कोई कलर सामने आएं तो भ्रमित न हों। जिस तरह से कोविड पेशेंट में म्यूकर के केस ज्यादा देखें गए हैं, उसी तरह से केनेडा फंगस एड्स के मरीजों में ज्यादा देखा गया है।


वहीं जिन महिलाओं की इम्यूनिटी कम हो जाती है। उनकी वेजिना में भी इस फंगस के वजह से ईचिंग होती है। इस बीमारी को केनेडासिस (Candidiasis) के नाम से जाना जाता है।

गलत तरीके से स्टियरॉइड दिए जाने से बढ़ी यह बीमारी : 
डॉ. सरमन सिंह ने बताया कि फंगस पहले से ही वातावरण में मौजूद है। आम तौर पर यह एड्स और ब्लड कैंसर जैसी गंभीर बीमारी से पीड़ित मरीजों में ही होते थे। लेकिन कोरोना काल में खासतौर पर डायबिटीज के मरीजों पर स्टियरॉइड के अंधाधुंध प्रयोगों ने इस बीमारी की दर को अचानक से बढ़ा दिया है।

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